Hindi, Heart and Hastakkshar: poems that bleed vernacular valour

समय की वीणा:

कल मैंने आँगन में मोर देखा
मोरनी थी शायद
चपल, रंग कुशल
चंचल पग, लयबद्ध चाल
मैं स्थिर खड़ा उसके पास
कौतुक नैनों में नृत्यलोकन की आस
वो उड़ बैठी नीम की डाल
त्रीव सौन्दर्य करता सहज उपहास

मैंने देखा उसके पार्श्व में आकाश,
जैसे जीवन के उत्तरार्ध में
हम दोनों बैठें हों पास पास,
न कोई चाह शेष न कोई पीड़ा
संगीतमय समय की वीणा 

कल मैंने आँगन में समय को देखा
हर पल, अविरल, सबल
जीवन पाश की महकती चाल
बहती प्रतिपल कसती चाल
उत्सुक
जैसे कोई प्रेम प्रशिक्षु
मैंने देखा यौवन का अट्टहास
तुम्हारा आना
और समय का थमना
दोनों बैठे
मेरे आस पास
न कोई चाह शेष न कोई पीड़ा
संगीतमय समय की वीणा

कल मैंने आँगन में मोर देखा
मोरनी थी शायद
फिर मैंने मुड़कर
तुम्हारी ओर देखा

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