
ये समर विशेष है
(२)
ये समर विशेष है
समय वस्तुतः बड़ा विचित्र है।
पुष्प लहलहा रहे बाग़ में,
पंछी चहकते नील गगन में,
वातावरण सिंचित है प्राण वायु से
किंतु प्राण संशित है वातावरण से,
मनुज बँधा भय की लक्ष्मण रेखा में,
पशु स्व्क्छंद विचारते शहर शहर में।
विचित्र ये नहीं कि समर फिर सज़ा है
प्रलय और विलय के काल कुरुछेत्र में,
अपितु ये कि दुराचारी दुर्योधन आज
अनंत है, विलुप्त है छिपा है शून्य में,
अद्रश्य शस्त्र संजोये अपने तरकश में,
अर्जुन आच्छादित है अज्ञानता के तीरों से
सैकड़ों दुशसशासन विष धर रहे कुरक्षेत्र में।
समर विचित्र में प्राणजायी करों ने
कमर कसी है, कमान सम्भाली है,
देवदूतों ने देवदत्त को फूँकारा है,
अर्जुन ने दुर्योधन को ललकारा है,
जनमानस की वेदना को मिटाना है,
चक्रव्यूह काल का बेधना है,
ज़हरीले मंसूबों का तमर विष,
श्वेतांबरधारी नीलकंठों को पीना है।
मूल्य इस धरा का भी तो चुकाना है।
समर फिर सो जाएगा युग नया आएगा,
कठिन समय ये भी बीत जाएगा,
किलकारी फिर गूंजेगी आँगन में,
बेला चमेली फिर महकेंगी जीवन में।
माना कि ये समर अति विशेष है
किंतु श्वेत कवचधारी भुजाओं में,
हिंदुस्तानी रक्त भी अभी शेष है,
पर कालखंड के तिमिर अध्याय में
सुनो पार्थ अब अर्जुन की अभिलाषा,
मस्तक पर इनके प्रशस्ति तिलक लगाना
हुतात्मा वीरों को लिपटाकर तिरंगे में ले जाना।
….……लिपटाकर तिरंगे में ले जाना।।
(१)
कुरुक्षेत्र
समय आया बड़ा विचित्र है,
क्षितिज पर अजीब चित्र है,
धरा का भी हाल बेहाल है,
दिशाओं में फैला काल है,
व्याधि घुली है फिज़ाओं में,
आसमानी सागर भी लाल है,
पार्थ संबोधित है अर्जुन से,
खड़ा कलयुगी कुरुक्षेत्र में।।
पतंगा लील रहा ज्योति को,
दूषित, कलुषित जल गंगा का।
आदि चीख रहा अनादि को,
व्यभिचारी सुर मन मृदंगा का।
किस्से और क्यों मैं समर करूं,
धर्म का विकट आज चरित्र है।
मत छोड़ो रण तुम गांडीवधारी,
फूंक देवदत्त में प्राण, भरो हुंकार।
कौरवों को दिशा दो लाक्षाग्रह की,
करो उद्घोष एक नए समर का।
मन की मलिन वेदना को भींच ,
रण की धरा को रक्त से सींच,
करो उद्घोष एक नए समर का।
क्षितिज पर चित्र एक नया बनना है
विजयगीत अभिनन्दन का गाना है।
व्यभिचारी महिषासुर का मर्दन कर,
भयभीत निर्भया को निर्भय बनाना है।
सृष्टि के कण कण, तृण तृण को,
मार्ग सनातनी संस्कृति का दिखाना है।
क्षीण हो चुका क्या रक्त तुम्हारी भुजा में,
कह दो कि कातर नहीं तू व्यक्ति विशेष है।
संशय भीरू भ्रम है, अज्ञानता है प्रमाद है ,
कर्म पर संशय तेजस्वी वीरों को निषेध है।
भृकुटी तनी, गांडीव फिर हटा कांधों से,
प्रशस्ति का सूरज चमकता मस्तक पर,
मध्य समर में अर्जुन संबोधित है स्वयं से,
स्मरण करो ओ दुश्मन के तीरों तरकश ,
मातृ ये मेरी, ये मेरा ही कुरुक्षेत्र है।
तिरंगा लहराता जब तक नील गगन में
बलीवेदी सत्य की चढ़ने, शिशिर शेष है
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#respectyourdoctor
December 19, 2017
Stats and Cricket
October 4, 2020
2 Comments
Ajay varma
Love to see,,what a word decoration,,।
मान गए!!!!
goelnarendra goel
Amazing Poem.and intense words.