My Travel Diary

Asthi Kalash

मुझे शून्य का आभास तब हुआ जब मणिकर्णिका घाट से क़रीब तीस फ़ीट पूरब मैंने भावातुर सूरज की तरफ़ देखा, गंगा को अंजलि में भरकर गरम अस्थियों को तारने का प्रयास किया और अपने भीतर की विचलित भाव भंगिमाओं को समेटते हुए अस्थि कलश का खुला मुँह शांत गंगा की मँझधार को समर्पित कर दिया। हड्डियों का वो ढाँचा जिसमें कल तक प्राण प्रवाह था आज अपनी भग्नता के साथ एक शोकाकुल आह भरते हुए जल में समाहित हो गया। उसके साथ समा गए वो क़िस्से वो कहानियाँ, बचपन की लोरियाँ, दस्तरख़ान पर बाँट जोहतीं निगाहें यहाँ तक की झुँझलाहट के वो चौराहे जिनकी बाँहें प्रेम और वेदना के तारतम्य से रहती थी सरोबार, हर बार। इतना प्रेम और इतनी वेदना की उनका सानिध्य मुझको ही असहज कर जाता था।मैं जो स्वयं ही उसके प्रेम की अभिव्यक्ति था। मूर्खतापूर्ण शून्य में क़ैद अपनी चेतन ज़िंदगी की उलझने ढोते, मैं उन चौराहों से गुजर जाता था। किंतु निश्चल वेदना मुझे विवश करती फिर आने, और बारम्बार आने के लिये। किंतु आज का शून्य भयावह था। समुद्र के सबसे गहरे गर्त की तरह घना स्याह, अनंत और अभेद।

मुझे जड़ता का आभास तब हुआ जब मुझे उस चलायमान नौका का स्मरण हुआ जिसकी कोख में मैं निष्प्राण प्राण लिए बैठा था। नौका गतिशील थी, गंगा की असीमित से ऊर्जा से संक्रमित। मैं जड़ था, दो गज की दूरी पर था, हाथ बढ़ा कर छू सकता था किंतु मेरी चेतना कालचक्र के पिंजर में क़ैद थी। मैंने पुनः सूरज को देखा, धूप और दोपहर आज सब जड़ थे। जो मृत्यु विहीन था, वो चेतन कैसे हो सकताहै?

मुझे जीवन का आभास दिलाया मणिकर्णिका के शीष पर जलती लाशों ने। गगनचुंबी लपटें और लपटों से फैलती शिराएँ। कितनी जीवंत थी। मणिकर्णिका अजब है।शिव की जटाओं सी जटिल। जाने शिव ने क्यों पार्वती दाह के लिए इसे चुना?

चौरासी लाख योनियाँ, नश्वर जीवन की विषमताएँ और उनको परिभाषित करती मणिकर्णिका की अनेकों अनेक गलियाँ, गलियों से आविर्भूत गलियाँ, मरणासन्न सी झांकती गलियाँ, जीवन बांचती गलियाँ। जैसे मस्तिष्क की शिराओं से नियंत्रित अनियंत्रित स्पंदन। कौन सा शिरा कब कहाँ जा कर मिलेगा कौन जाने। बस इतना जानता हूँ की इन गलियों में जीवन और मृत्यु दोनो गलबहियाँ डाल कर घूमते हैं।प्रत्येक क्षण में जीवन और मृत्यु दोनो समाहित। महज़ पाँच मिनट में पाँच शव बड़ी सहजता से मेरे इर्द गिर्द से गुज़र गए। अजब ये नही है की मणिकर्णिका पर चौबीसों घंटे शव दाह होता है आश्चर्यजनक ये है कि प्रथम द्रष्टा घृणा के पात्र सा लगने वाला घाट वस्तुतः मृत्यु से अलंकृत था और इस सत्य को सब ने स्वीकार कर लिया था। यहाँ मृत्यु त्यक्त नही सशक्त थी। मैं उन सब कूचों से होकर गुजरता हूँ, अपने अक्स की अंत्येष्टि के लिए।

मैं अब भी जड़ था। मेरे अंदर अगर कुछ चेतन था तो वो था माँ की स्मृतियों का ब्रम्हाण्। कभी स्नेहिल, कभी व्याकुल, कभी जटिल, कभीशालीन किंतु निरंतर गतिशील और जीवंत स्मृतियाँ।

माँ ने जाने के लिए भी शिवरात्रि के दिन  का चयन किया, मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिवस। मानो स्वर्ग से पिताजी ने आवाहन किया हो।मेरे स्मृति करण को विराम दिया केवट की आवाज़ ने,

माताजी को अंतिम विदाई देने के लिए नमन करें।

बोझिल मन से मैंने कलश का मुँह बंधन मुक्त किया और गंगा की ओर मोड़ दिया।परंतु अस्थियों ने बाहर जैसे बाहर आने से मना कर दिया हो।

कलश को थोड़ा हिलाइएकेवट की आवाज़ ने पुनः कर्ण झिल्ली का कंपन किया।

मैंने अनुसरण किया और अस्थियाँ गंगा में विसर्जित हो गयी, एक तीव्र आह के साथ जिसने मुझे झकझोर दिया। शायद माँ ने एक अंतिम प्रयास किया था मुझे शून्य से खींचने का, मुझमें चेतना का संचार करने का। मानो कह रहीं थी कि मुझमें अब भी चेतना है, और मैं अग्रसर हूँ अपने नय पथ पर।

”मृत्यु का समय, स्थान, और विधि सब भिन्न हो सकते हैं किंतु मृत्यु ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।”

मैंने वापसी की राह पकड़ी और मणिकर्णिका से आलिंगनबद्ध शिव कॉरिडर की तरफ़ दृष्टिगोचर हुआ।

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