
सफ़र
December 31, 2019
चाहतें यूं ही नहीं अक्सर मंज़िल को तरस जाती हैं,
बस्ती और वीराना दोनों मुझसे नाराज़ है।
सैलाब कब का, पशेमां हो कर गुज़र चुका है,
हवाओं को नजाने क्यों खुद पे नाज़ है।
वफ़ा सरे राह बैठी है एक तल्मीह के इंतज़ार में,
जाने तेरे रुखसार में वो क्या इक राज़ है।
शायरी क्या है बस खयालों का एक पुलिंदा,
सलामत किताब में अब तलक वो इक गुलाब है।
अफवाहों को गर्म रहने दोअभी और उड़ने दो कि,
सरे आइना मै हूं तो पशे आइना मेरा हमराज है
परिंदा छू के पेशानी जाने वाले का पता दे गया
अब सफर शुरु करता हूं, बेसबर आफताब है।

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गुफ़्तगू

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प्रदीप गुप्ता
रास्ते महके महके
मंजिलें बेताब हैं
तुम सफर शुरू करो
हम तुम्हरे साथ हैं।