
निशब्द…
हिमगिरि के उतंग शिखर पर बैठा एक महर्षि,
आलोकित वाणी से कर रहा युगांतर प्रलय पाठ।
इधर श्वेत मूंछों पर करों का कोमल प्रहार,
उधर छण भर में युगों का फेर ।
जल भी था कल भी, बालकों का कोलाहल भी था,
शिवाय की धुन पर सतयुगी शिव हो रहा मदमस्त था।
पुत्र वियोग में व्याकुल दहराथी धैर्य,
और स्वछंद विचरते राम।
सीता हरण से हर्षित,
रावण का विहंगम अट्टहास, और
युग ने लिया एक अल्प विराम।
मन विस्मित था या पुलकित था,
द्वापर में रास रचती मृगनयनी का
नृत्य भी तो अतबुद्ध, अलोकिक था।
दूर छितिज से टकटकी लगाए,
कलजयी के रंगों को निहारता,
समय और शब्दों की परिधि में जकड़ा,
शिशिर… निशब्द था।।
I have a very strange yet bonding relationship with words they hover over my consciousness like a flowery Bumbershoot, far enough to not decorate my speech yet close enough to rescue my amateurish writing.
Yesterday, however, was different there was a constant tussle amongst words each trying to outdo others as they queued up in my mind to secure a place in this write-up….. my writer spirit hanging in space wordlessly, mesmerized by a truly professional and spellbinding performance.



Yog....Discovery of thy self

All in a day's work
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2 Comments
डॉ sucheta दिनकर
वास्तव में निशब्द होने की ही स्थिति थी ।विशेष रूप से ये सोचकर कि सभी कलाकार व्यावसायिक रूप से व्यस्त चिकित्सक है फिर भी अपने अपने हुनर को यूं निखारा कि आपकी लेखनी ने यूं निशब्द होते हुए भी शब्दों को बांध लिया।अत्यंत सराहनीय है
shishirdr
Thanks a lot ma’am