
कुरुक्षेत्र
समय आया बड़ा विचित्र है,
क्षितिज पर अजीब चित्र है,
धरा का भी हाल बेहाल है,
दिशाओं में फैला काल है,
व्याधि घुली है फिज़ाओं में,
आसमानी सागर भी लाल है,
पार्थ संबोधित है अर्जुन से,
खड़ा कलयुगी कुरुक्षेत्र में।।
पतंगा लील रहा ज्योति को,
दूषित, कलुषित जल गंगा का।
आदि चीख रहा अनादि को,
व्यभिचारी सुर मन मृदंगा का।
किस्से और क्यों मैं समर करूं,
धर्म का विकट आज चरित्र है।
मत छोड़ो रण तुम गांडीवधारी,
फूंक देवदत्त में प्राण, भरो हुंकार।
कौरवों को दिशा दो लाक्षाग्रह की,
करो उद्घोष एक नए समर का।
मन की मलिन वेदना को भींच ,
रण की धरा को रक्त से सींच,
करो उद्घोष एक नए समर का।
क्षितिज पर चित्र एक नया बनना है
विजयगीत अभिनन्दन का गाना है।
व्यभिचारी महिषासुर का मर्दन कर,
भयभीत निर्भया को निर्भय बनाना है।
सृष्टि के कण कण, तृण तृण को,
मार्ग सनातनी संस्कृति का दिखाना है।
क्षीण हो चुका क्या रक्त तुम्हारी भुजा में,
कह दो कि कातर नहीं तू व्यक्ति विशेष है।
संशय भीरू भ्रम है, अज्ञानता है प्रमाद है ,
कर्म पर संशय तेजस्वी वीरों को निषेध है।
भृकुटी तनी, गांडीव फिर हटा कांधों से,
प्रशस्ति का सूरज चमकता मस्तक पर,
मध्य समर में अर्जुन संबोधित है स्वयं से,
स्मरण करो ओ दुश्मन के तीरों तरकश ,
मातृ ये मेरी, ये मेरा ही कुरुक्षेत्र है।
तिरंगा लहराता जब तक नील गगन में
बलीवेदी सत्य की चढ़ने, शिशिर शेष है
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3 Comments
Dr Mala Sharma
Wonderful Dr Shishir, keep writing and posting !! I love the concluding line – balivedi satya ki chadhne Shishir shesh hai!
Geeta Varshneya
Rare to find such command over Hindi and English!!
Kudos Dr. Shishir!! Enjoyed reciting it loud!
Dr H.P.SINGH
excellent .