
मेरे हृदय की अविरल गंगा
(1)
नतमस्तक बैठा हूं सुनहरी सांझ के गलियारों में
हृदय में अपने सृजन की विस्मित झंकार लिए,
गर्भ की चोटिल हुंकारों का,
विरही तन की मरमित पुकारों का,
ज्वर से तपती रातों में
बोझिल आंखों के करुण कृंदन का,
नादान बचपन की कहानियों पर
बरसते तेरे स्नेहिल चुंबन का,
मेरी हर भृमित जीत पर
उड़ते तेरे मन पतंगा का,
और मेरी हर हार पर
अश्कों से छलकती गंगा का.
मेरे आने की आहट तकती
दृवार पर टिकी निगाहों का,
मैं साक्षी हूं
तेरी हर वेदना, हर संवेदना का,
तुम ममतामई, तुम प्रेरणादाई,
तुम्हीं संचित मेरे जीवन के उजियारों में,
नतमस्तक बैठा हूं मैं सुनहरी सांझ के गलियारों में.
(2)
मेरे हृदय की अविरल गंगा,
शिशिर की पहली बेला में,
धवल धूप किरणों की स्नेहिल गंगा।
प्रीतम की मृगनयनी आंखों सी,
सिंदूरी सांझ की लालसी बांहों सी,
हथेलियों में खिली सुर्ख हिना सी,
मन मस्तिष्क के शिवालय में
अठखेलियां करती, तुम
भागीरथी सी चंचल गंगा।
मेरे हृदय की अविरल गंगा।।
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2 Comments
Manisha gupta
wonderful dr shishir ….
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बहुत बौने पड़ गए हैं तारीफ़ों के शब्द…