एक शाम यादों में , एक शाम आहों में।
एक पुराना बरगद और उसपे बैठा इक परिंदा।
गाँव की गलियाँ वो रंगरलियाँ,
इमली के पेड़ और गुड़ की डलियाँ ,
एक तेरे शहर का शोर और ,
एक ख़ामोशज़दा बाशिंदा,
बरगद टूट रहा, साथी छूट रहा,
परिंदा बेचैन है फ़िज़ाओं में ।
एक शाम आँखों में, एक शाम ख़्वाबों में।
एक छोटा सा घर, एक महल सपनों का,
एक काग़ज़ की नाव और,
एक ठेला जामुन का,
एक तेरे जाने की आहट,
एक तुझे पाने की चाहत ,
कश्ती छूट गयी किनारों से
मेला लगा बाज़ारों में,
एक शाम बाहों ,में एक शाम निगाहों में।
मेरा माज़ी भी, मेरा मुस्तकबिल भी,
वक़्त की दयोड़ि पर
दोनो बैठें हैं आमने सामने,
गुफ़्तगू करूँ या मलाल ।।
गुफ़्तगू
