
और मैंने डुबकी लगायी!
पिछले वर्ष शिवरात्रि को जब मेरी माताजी अपनी दिव्य यात्रा पर निकलीं थी तब मैंने उनकी अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया था। जाने कितने ही मात्र पितरों के आशीर्वाद का समागम गंगा के प्रवाह में सामिलित था। उस सम्मिलित ऊर्ज़ा का मैंने आवाहन किया। ब्रह्म मुहूर्त था, सूर्य क्षितिज़ से झांकने को आतुर, माघ मास की एकादशी और शिशिर ऋतु में शिशिर के शीत से कपंपित शरीर ने अपनी पूरी सांसारिक आस्था के साथ गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम स्थल पर माँ के चरण स्पर्श किए। प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी का संगम है। मान्यता है कि मां गंगा और माँ यमुना तो सदृश्य हैं किंतु माँ सरस्वती अदृश्य, कुछ विरले भाग्यवान लोगों को माँ सरस्वती दर्शन देती हैं।
कहते है इस अनंत ब्रह्मांड में हर बारह बरस के बाद एक खगोलीय घटना घटती है, रवि और गुरु अपनी ग्रह दशा बदलते हैं और कुंभ का मुहूर्त आता है। और बारह कुंभ के बाद, यानि १४४ साल के अंतराल पर महाकुंभ।ऐसे शुभ मुहूर्त पर गंगा स्नान से मनुष्य अपने पापों से मुक्ति पा सकता है।
एक पौराणिक मान्यता भी है कि समुद्र मंथन से चौदहवें रत्न के रूप में अमृत कलश की उत्तपत्ति हुई थी, और देवों और दानवों में कलेश भी। इंद्र पुत्र जयंत ने कलश को लेकर भागते हुए हड़बड़ी में चार बूँदें छलका दी थी जो पृथ्वी पर चार अलग अलग जगह गिरी थी, प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। इन्ही स्थानों पर एक निश्चित अंतराल के बाद आस्था और धर्म का पर्व होता है।मैं इन ग्रहों के गणित और पौराणिक कथाओं की गूढ़ता को नहीं समझता पर इतना अवश्य समझ रहा था कि अपनी इस शारीरिक यात्रा के साथ मैं एक और अदृश्य यात्रा पर भी निकल पड़ा था।

मेरा मन इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि चालीस करोड़ लोग जो रोजमर्रा के जीवन में द्वेष, कलेश और धूर्ता कि हर सीमा लाँघने में तनिक नहीं हिचकिचाते उनमे अचानक कुछ ग्रहों कि स्थिति बदलने मात्र से इतनी आध्यात्मिक चेतना जागृत हो गई। और यक्ष प्रश्न ये था कि क्या महाकुंभ और संगम स्नान उन्हें इन विकारों से मुक्त कर पाएगा?
कितने असंख्य लोग थे! मैं नहीं जानता कि इतने असंख्य लोग, हज़ारों हज़ार साधु, नागा बाबा, अघोरी और अध्यातमिक महत्ता में अपने ज्ञान की पारंगता को घोषित करते हुए ये श्री श्री…अखाड़े और उनके अनगिनत अनुयायी माँ सरस्वती की दर्शन की कामना के साथ इस कुंभ में आते हैं अथवा अमृत कलश से छलकी बूँदों के रसपान की लालसा में। ऐसा लग रहा था मानो ये मानव समुद्र गंगा के चीर को भेद कर अमृत कण को खोज ही निकालेगा। गंगा असहाय थी किंतु थी तो आख़िर माँ ही इसलिए शांत थी, अपने बच्चों कि कुशलता और दीर्घायु के लिए प्रतिबद्ध थी।

मुख्यतः मेरी यात्रा शुरू हुई प्रातः चार बजे, मैं कंपकपा देनी वाली ठंड में भयावह भीड़ को भेदता हुआ अपने शिविर से निकलकर अरेल घाट पहुँचा। घाट से हमने नाव पकड़ी और संगम की राह पकड़ी। क्या ही विहंगम दृश्य था, यमुना के शांत जल में नावों के जत्थों ने पूरब की तरफ़ कूच किया। ऐसा लगा कि प्रकृति और मानव के इस सम्मिलित प्रयास ने तन और मन दोनों की पीड़ा हर ली है।ये यात्रा का सबसे सुखद अनुभव था।
सैंकड़ों मील फैले मेला क्षेत्र में अनेकों भावभंगिमाएं थीं, अनेकों रूप, सहज भी और अकल्पनीय भी, जाने कितने ही मठ मठाधीश और बहुचर्चित अखाड़े। मुझे सनातन का ये स्वरूप बहुत लाचार लगता है। इसलिय नहीं कि इस सनातन में किसी ने नग्नता को अपना आवेश बनाया है तो किसी ने भभूत को आभूषण तो किसी ने प्रवचन को व्यवसाय। न ही मुझे धर्म इसलिए समर्थ लगता है क्योंकि आस्था की डोर में पिरोए हुए करोड़ों लोग महाकुंभ जैसे असंभव आयोजन को संभव कर देते है। सनातन समर्थ एवम शाश्वत है तो अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा के बल पर, परंतु कभी कभी लगता है कि सनातन के सिपाहियों ने इसकी सबल परंपराओं से सार्थकता का रस निचोड़ लिया है। अखाड़ो और मठों की स्थापना मनुष्य की आधात्मिक चेतना को जागृत करने के लिए हुई थी भोले जनमानस को कतार में विवश करके, मुद्रा ग्रहण की चेस्टा से आशीर्वाद विस्तारण नहीं।
अखाड़े समृद्ध दिख रहे थे और बलशाली भी। मैंने साधु और साध्वी की जोड़ी को धूप का चश्मा चढ़ाये अपनी फॉर्च्यूनर गाड़ी से सर्राटा मारते हुए देखा, मैंने गरीब जनता को मीलों पैदल पिसते हुए देखा, मैंने आलीशान अहंकार देखा, और मैंने विवशता का रेला देखा।


मैंने अपना बचपन इलाहाबाद की गलियों में गुजारा है, और ये परिहास सुनते आयें हैं कि ये शहर इतना आलसी है कि यहाँ हनुमान जी भी आ कर लेट गए। लेटे हुए हनुमान जी का मंदिर यमुना तट से थोड़ी ही दूर किले के पास है। मेरे साथी ने एक रोचक बात बताई। रोचक ये नहीं कि हनुमान जी का श्रृंगार प्रातः और साँझ के समय दिन में दो बार होता है, बात ये कि आप अपने करकमलों से भी प्रभु का श्रृंगार कर सकते हैं, २१००० की दक्षिणा दे कर। ये और बात है कि अगर आप आज ये पैसे खर्च करते हैं तो शायद सात या आठ साल बाद आपको ये सौभाग्य मिले। और हाँ अगर उस तिथि को कोई कुम्भ जैसा पर्व हो गया तो इक्कीस हज़ार से काम नहीं चलेगा, ५१००० खर्च करने पड़ेंगे। मतलब कोरी भावना से काम नहीं होगा, भौतिक सामर्थ्य भी होनी चाहिये।
जितनी असहाय गंगा थी उतना ही असहाय मुझे सनातन भी जान पड़ रहा था। जबकि सनातन समर्थ भी है और सार्थक भी ।शाश्वत सनातन अपने निर्वाह के लिए व्यवसाय पूर्ण प्रथाओं और पाखंडों पर निर्भर क्यों होना चाहिए? लगता है इसिलिय हुनमान जी भी भक्तों का उद्धार करते करते थक कर सो गए थे, कि बस अब मुझसे और नहीं होगा। गंगा माँ हर वर्ष सावन में आकर अपने शीतल स्पर्श से उन्हें उठाती हैं कि उठो पुत्र कर्म करो, हमारा कर्म है भक्तों को आशीर्वाद देना। हर वर्ष बाढ़ में लेटे हनुमानजी डूब जाते हैं और गंगा उन्हें छूकर वापस लौट जाती हैं।
एक और तथ्य जो स्पष्ट दिख रहा वो यह की इस बार महाकुंभ में न केवल वृद्ध श्रद्धालु थे अपितु बड़ी संख्या में इस बार युवा वर्ग भी सम्मिलित हुआ। जो सनातन धर्म के बढ़ते गौरव की और इंगित कर रहा था। सम्भवतः आने वाले समय में युवा धर्म में निहित अधात्यमिक मर्म को समझेंगे। इस तथ्य को भी कौन झुठला सकता है कि हिंदू धर्म एक मात्र ऐसा धर्म जो सबके विचारों को अपने अंदर समाहित करता है और सदा अध्यात्मिक चेतना को प्रोत्साहित करता है, उसे ऊर्ज़ा देता है।
संगम के शीतल जल में जलमग्नता की क्षणिक क्रिया के समय एक अभूतपूर्व जड़ता का आभास हुआ, ऐसी जड़ता जो एक नई उर्ज़ा के साथ पुनः चेतना में बदल गई। वो यक्ष प्रश्न जिसके साथ मैंने अपनी यात्रा आरम्भ की थी एक बार पुनः मेरे मन की गहराइयों में हिचकोले मार रहा था..क्या मैंने अपने मन के विकारों और विषमताओं से मुक्ति पायी? इसका उत्तर मेरी विश्लेषणात्मक क्षमताओं से कोसों दूर था । जिस तथ्य को चालीस करोड़ जनता नमन कर रही थी उस पर मेरा अज्ञानी मन प्रश्नचिह्न लगा रहा था? लगता है मैं इस बार भी मैं माँ सरस्वती के दिव्य दर्शन से वंचित रहा।

दूर क्षितिज पर मैंने चढ़ते सूरज को देखा उसकी मंत्रमुग्ध करने वाली सुंदरता को प्रणाम किया और एक बार पुनः अपनी सांसारिक यात्रा पर अग्रसर हो गया।
Grey matter stimulating beautiful blog
Bohut hi sundar visleshan hai !!
Sach me santan ko viklang kar rahe hein ye dhingi akhade vaale … Do we really need this kinds of Guru who themselves are caught in earthly materialism !!
At the same time i got to know few who were so distant to all this .. they hardly had anything to talk !! Mai kya updesh karu. …
May be one day .. we will feel saraswati .. till then
Om namah shivay
बहुत गहरी बात लिखी है..वाह…
Thats so engaging and interesting to read,loved it!!
अद्भुत विवरण 👏👏